भीष्म साहनी- मानवीय मूल्यों का चितेरा
भीष्म साहनी आधुनिक हिन्दी कथासाहित्य केप्रमुख स्तम्भों में से एक हैं इन्हें हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का लेखक माना जाता है क्योंकि ये अपनी लेखनी में सदैव मानवीय मूल्यों के हिमायती रहे साहित्य के प्रति अपने समर्पण, अथक परिश्रम और सतत् साहित्य साधना के द्वारा भीष्म साहनी ने हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।
भीष्म साहनी ने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध और आत्मकथा आदि गद्य विधाओं में सृजन कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है इनकी लेखनी में मानवीय संवेदना के साथसाथ सामाजिक सरोकार, जीवन मूल्य, यथार्थवादी दृष्टिकोण हमेशा दिखाई पड़ता है।
नाटकों में जीवन दर्शन
इनका रचनात्मक संसार जीवन के विस्तृत उतारचढ़ाव और मोड़ों के बावजूद संवेदना के स्तर परअविचलित रहा हैबहुमुखी प्रतिभासंपन्न भीष्म साहनी ने अपने नाटकों के माध्यम से समकालीन हिन्दी नाटककारों में एक विशिष्ट स्थान बनाया हैभीष्म साहनी के सभी नाटक युगीन समस्याओं तथा जनसामान्य की पीड़ा और व्यथा का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली रूप में करते हैंइनके नाटकों की विषयवस्तु लगभग इतिहास, पुराण, मिथक, लोककथा और किंवदंतियों पर आधारित है उन्होंने नाटकों के माध्यम से आज के युग की किसी न किसी मानवीय स्थिति का संवेदनात्मक रूप में उद्घाटन किया है।
विस्तृत दायरे
में है भीष्म का रचना संसार
भीष्म साहनी इतने बड़े रचनाकार हैं कि उनको किसी एक दायरे या फ्रेम में बांधना
संभव नहीं है, उनको बार-बार, लगातार
याद किया जाना भी जरूरी है, भीष्म साहनी की रचनाशीलता एक अलग प्रवाह में है,
इसका दायरा काफी लंबा है। उपन्यास, कहानियां,
नाटक, आत्मकथा, लेख और लेखन एवं कला की लगभग सभी विधाओं में उन्होंने अपनी कलम लगातार
मांजी है । उनके उपन्यास-‘तमस’, ‘कुन्तो’, ‘बसंती’, ‘कड़ियां’,
‘झरोखे’, ‘मय्यादास की माड़ी’। कहानी
संग्रह-‘निशाचर’, ‘पाली’, ‘डायन’,
‘शोभायात्रा’, ‘वांडचू’, ‘पटरियां’, ‘भटकती राख’, ‘पहला पाठ’। नाटक-‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘हानूश’,
‘माधवी’, ‘मुआवजे’ और आत्मकथा-‘आज के
अतीत’ को अगर नहीं पढ़ा है तो जरुर पढिए। उनकी ज्यादातर कहानियां मध्यम वर्ग पर
केंद्रित रही है ।
भीष्म साहनी का लगाव
प्रगतिशील लेखक संघ से भी रहा, अफ्रो-एशियाई
लेखक संघ से भी जुड़े रहे। संगठन की पत्रिका ‘लोटस’ के कुछ अंकों का संपादन भी
उन्होंने किया। साल 1993 से 1997 तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समिति के सदस्य रहे।
पढाई
अंग्रेजी में और लिखते रहे हिन्दी में
भीष्म साहनी साहित्य
और सिनेमा जगत का जाना माना नाम है, भीष्म
साहनी का जन्म 8 अगस्त,
1915 को रावलपिंडी में हुआ था। भीष्म साहनी ने अपनी पढ़ाई
अंग्रेजी में की थी। मातृभाषा उनकी पंजाबी थी, लेकिन लिखते हिंदी में थे। विभाजन के बाद
उन्होंने 1948-1951 तक अंग्रेजी पढ़ाई। फिर पंजाब यूनिवर्सिटी
से पीएचडी करने चले गए। डॉ. भीष्म साहनी ने अपने भाई की बायोग्राफी ‘बलराज माई
ब्रदर’ लिखी। इसी कृति में उनके बचपन की झलक दिखती है। रावलपिंडी में हरबंस लाल
साहनी व लक्ष्मी देवी के घर जन्मे भीष्म साहनी के भविष्य की नींव कुछ यूं पड़ी
थी... भीष्म साहनी एक जगह लिखते हैं
‘रावलपिंडी में बिजली सप्लाई 1929
में शुरू हो गई थी, लेकिन हमारे घर में बिजली
सबसे अंत में आई, क्योंकि पिता जी के मन में कहीं से यह बात
बैठ गई थी कि बिजली आंखों के लिए नुक्सानदायक है। इसी बात को लेकर घर में कई बार
चर्चा होती। अंतत: जब घर में बिजली आई तब भी सबसे कम वॉट के बल्ब लगाए गए थे,
ताकि आंखें सुरक्षित रहें। हम उसी रोशनी में पढ़ाई करने को मजबूर
थे।’
साल 1957 से लेकर साल 1963 तक भीष्म साहनी मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के तौर पर
कार्यरत रहे। इस दौरान उन्होंने करीब दो दर्जन किताबों जिसमें टॉल्सटॉय के उपन्यास
भी शामिल हैं, का हिन्दी में अनुवाद किया।
पुरस्कारों की
लंबी फेहरिस्त
साल 1975 में उपन्यास ‘तमस’ के ऊपर उन्हें ‘साहित्य
अकादमी’ पुरस्कार मिला, तो इसी साल पंजाब सरकार ने भी
उन्हें ‘शिरोमणि लेखक अवार्ड’ से सम्मानित किया। भीष्म साहनी के लेखन का सम्मान
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ। साल 1980 में उन्हें
‘अफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन’ का ‘लोटस अवार्ड’ तो साल 1983 में सोवियत सरकार ने अपने प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘सोवियत लैंड नेहरू
अवार्ड से नवाजा। साल 1998 में भारत सरकार ने उन्हें
‘पद्म भूषण’ अलंकरण से विभूषित किया।
अपनी आत्मकथा मे भीष्म
साहनी ‘आज के अतीत’ में विचारधारा और
साहित्य के रिश्ते को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं,
‘‘विचारधारा यदि मानव मूल्यों से जुड़ती है, तो उसमें विश्वास रखने वाला लेखक अपनी स्वतंत्रता खो नहीं बैठता।
विचारधारा उसके लिए सतत प्रेरणास्त्रोत होती है, उसे
दृष्टि देती है, उसकी संवेदना में ओजस्विता भरती है।
साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं है, महत्वपूर्ण
है। विचारधारा के वर्चस्व से इंकार का सवाल ही कहां है। 11 जुलाई, 2003 को
भीष्म साहनी ने इस नश्वर संसार को त्याग
दिया दिल्ली में उनका निधन हो गया।
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