गमन की बातें
''आपकी याद आती रही रात भर ....''
गाँव के जमींदार द्वारा अपनी जमीन हड़प लिए जाने के बाद कोटवारा गाँव के अल्पशिक्षित गुलाम हसन ( फारुख शेख) के पास बेहतर भविष्य के लिए गाँव छोड़कर शहर आने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचता है. वह काम की तलाश में अपने दोस्त लल्लूलाल ( जलाल आगा) के पास बम्बई आ जाता है. वह सोचता है कि जल्दी ही वह इतने पैसे कमा लेगा कि गाँव आकर अपनी जमीन छुड़ाकर अपनी पत्नी और माँ के साथ आराम से रह सकेगा. पर बम्बई में भी काम कहाँ है, वो भी अल्पशिक्षित आप्रवाशी के लिए. वह लल्लूलाल की मदद से टैक्सी चलाना सीखकर टैक्सी चलाने लगता है. पर लाख कोशिश करने पर भी इतने पैसे नहीं जुटा पाता है कि अपने गाँव वापस जा सके.
उधर गुलाम हसन के बम्बई आ जाने के बाद उसकी माँ और पत्नी खैरुन ( स्मिता पाटिल) की जिन्दगी मानो ठहर सी जाती है, एक अंतहीन प्रतीक्षा बन जाती है. उनके जीवन में अब महत्वपूर्ण घटना बस बम्बई से गुलाम द्वारा कभी-कभार भेहे गए ख़त और मनी आर्डर ही रह गए है. दिन तो किसी तरह खैरून का कट जाता है, पर रात तो कटती नहीं है. गुलाम की याद उसे सताती रहती है.
ऐसे ही पलों के लिए फिल्म ''गाइड'' में कविराज शैलेन्द्र ने लिखा था :-
दिन ढल जाए हाय रात न जाए,
तू तो ना आए तेरी याद सताए
फिल्म ''गमन''(1978) में खैरुन के इस मनोस्थिति को दिखाने के लिए निर्माता-निर्देशक मुजफ्फर अली कोई ऐसा गीत चाहते थे जो फिल्म के मिजाज़ में पूरी तरह फिट बैठे और जिसे अर्धशास्त्रीय धुन में ढाला जा सके. इसलिए उन्होंने मरहूम शायर मखदूम मोहिउद्दीन की ग़ज़ल '' रात भर आपकी याद आती रही'' का इस्तेमाल करने का निश्चय किया जिसे संगीतकार जयदेव ने राग भैरवी में शुद्ध कोमर गंधार के मध्यम स्वरों में संगीतबद्ध किया. और इसे गाया उस समय वनस्पतिशास्त्र में पढ़ाई कर रही पर साथ ही ग़ज़ल गायन में रूचि लेनी वाली छाया गांगुली ने.
गाने की शुरुआत में गुलाम अपने द्वारा अब तक जमा किये हुए पैसे गिनता है, जो कि वापस गाँव जाने के लिए नाकाफी है. उधर बीमार माँ के पाँव दबाती खैरून की आँखें मानो अंतहीन प्रतीक्षा में थक चुकी है. अब वहां सिर्फ नमी और अकेलेपन का भयावह सन्नाटा है. बैक ग्राउंड में छाया गांगुली की आवाज में मखदूम साहब की गज़ल बजने लगती है :-
आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर
आप की याद आती रही ...
रात भर दर्द की शमा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर ...
ये सिर्फ खैरुन का ही नहीं नौकरी की तलाश में परदेश गए पतियों की पीछे छूट गए हर पत्नी का दर्द है. तभी तो इन पत्नियों के विरह को लेकर हजारों लोकगीत लिखे गए हैं. इनके जीवन में अपने पतियों के वापस लौटने की प्रतीक्षा के अलावा और कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं. विरह के दर्द और गम को कम करने के लिए उनके पास सिवा यादों के और है भी क्या? ये यादें कभी कभी बांसुरी की मधुर धुन की तरह दिल में तड़प बनकर बजती है तो कभी चाँद की चांदनी तरह उनके मन के आंगन में विरह के अँधेरे को दूर करती हैं.
बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर ...
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी जगमगाती रही रात भर ...
पर इधर गुलाम भी तो विरह की आग में जलता हुआ एक दीवाने की तरह दिन-रात टैक्सी चला रहा है ताकि वह इतने पैसे जमा कर सके कि गाँव वापस जा सके. पर पैसे हैं कि जमा ही नहीं होते. वह मायूसी में सिर्फ ख़त भेजकर रह जाता है.
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर ...
आज इस फिल्म और इस गाने के प्रदर्शित हुए कोई 47 साल बीत गए हैं और आज भी जब इस गाने की याद आती है तो याद आते हैं अपने सास के पैरों पर सूनी आँखों से सिर झुकाकर झुककर पैर दबाती, चूल्हे को बुझाती, घर के द्वार को बंद करती और अपने पति के पत्र को अपनी अँगुलियों से दबाती खैरुन (स्मिता पाटिल) और खामोश सूनी आँखों और बेबस चेहरे के साथ टैक्सी चलाता गुलाम हसन (फारुख शेख) और कानों में गूँज उठती है सरोद और बांसुरी का मधुर संगीत और छाया गांगुली के मध्यम स्वर में खैरुन की विरह वेदना. जयदेव और छाया गांगुली इस फिल्म और इस गाने के लिए याद किये जाते हैं. जयदेव को इस फिल्म के संगीत के लिए 1979 सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो छाया गांगुली को सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.
पर इस गीत की कोई भी चर्चा मरहूम शायर मखदूम मोहिउद्दीन के इस खूबसूरत ग़ज़ल की चर्चा के बिना अधूरी है. फिल्म में लिए जाने से पहले ही ये गज़ल बेहद चर्चित और लोकप्रिय थी और इसे पहले भी अनेक गायकों ने गाया था. ये गजल उनके नाम के साथ इस कदर जुड़ गयी कि जब 1969 में उनका निधन हुआ तो उनकी याद में फैज़ अहमद फैज़ ने लिखा :-
"आपकी याद आती रही रात भर"
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर
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