कागज के फूल
सूटेड-बूटेड आदमी अकेला सड़क पर चला जा रहा है कि अचानक बारिश-तूफान शुरू हो जाता है। छिपने के लिए वो एक बड़े बरगद की शरण लेता है। बरगद के नीचे खड़ा अपने कपड़ों को झाड़ रहा है कि एक नाज़ुक सी छींक की आवाज़ सुनाई देती है। बरगद के दूसरी ओर जाकर देखता है तो एक खूबसूरत सी लड़की जो मासूम भी है और खुदा ने जिसमें शरारत का एक छोंक भी डाला है, दूसरी बार छींकने की तैयारी कर रही है।
इस आदमी को देखकर लड़की अपनी आँखें तरेरती है, वो जानती है कि ये भी औरों की तरह उससे बात करने के बहाने तलाश रहा है। इससे पहले कि ये कुछ बोले लड़की पहले ही जता देती है कि मुझसे बात करना बेकार है, मैं तुम्हारे झांसे में नहीं आउंगी। पर अपना ये आदमी शरीफ है। आपने इसका चेहरा देखा होता तो जानते। बेहद शरीफ़ चेहरा है। लड़की फिर छींकती है, अब ये इंसान अपना गरम कोट उतार कर उसे दे देता है। लड़की अब इससे थोडा प्रभावित सी लगती है लेकिन तभी इसे याद आता है कि इसे कहीं जाना है। ये तुरंत वहां से निकल जाता है। लड़की इसके गरम कोट में लिपटी खड़ी रह जाती है। ये इनकी पहली मुलाक़ात है। कई दिनों बाद की बात है। ये लड़की एक गली में चलती जा रही है। कोने में एक शराबी धुत्त पड़ा है। लड़की के हाथ में एक पैकेट है। वो आगे बढती है कि अचानक उसके सामने कैमरा आ जाता है। वो सहम कर पीछे हट जाती है। उसकी आँखों में डर और घबराहट है। पता चलता है कि ये एक शूटिंग चल रही है और लड़की गलती से यहाँ घुस आई है। इस फिल्म का डायरेक्टर वही शरीफ इंसान है जिसने इस लड़की को अपना गरम कोट दिया था। लड़की वही कोट उसे लौटाने आई थी। बाद में लड़की अपना नाम-पता दिए बिना कोट लौटा कर चली जाती है।
हमारी कहानी का नायक बाद में शूटिंग के रशेज़ देख रहा होता है तो अचानक वही शॉट उसके सामने बड़े परदे पर आ जाता है जिसमें वो लड़की कैमरे से सहमकर दीवार से जा सटी थी। पहली मुलाक़ात के दिन तो तूफ़ान भरी अँधेरी रात थी। शूटिंग के समय भी नायक ने लड़की के चेहरे को ध्यान से नहीं देखा था। अब उसने गौर से इस लड़की को बड़े परदे पर देखा है और देखता रह जाता है। लड़की की आँखों में जो डर है, घबराहट है वो उसे भा जाती है। उसे अपनी फिल्म के लिए ऐसी ही नायिका की तलाश थी। वो ‘देवदास’ बना रहा है, उसे उसकी पारो मिल गयी।
इस दृश्य में एक तीन सेकंड का शॉट है जिसमें परदे पर सहमी हुई लड़की इधर-उधर देख रही है, और नायक उसके चेहरे को ही देखता जा रहा है पीछे बांसुरी का एक नन्हा सा पीस बज रहा है। बेहद प्रभावशाली तीन सेकंड हैं ये।
अब उस दृश्य की बात करता हूँ जिसके लिए मैंने ये पोस्ट लिखी। अब तक आपने अंदाजा लगा लिया होगा कि मैं किस फिल्म की बात कर रहा हूँ। जो लगा चुके हैं वो मेरी तरफ से अपने आपको शाबाशी दे लें।
फिल्म स्टूडियो का बहुत बड़ा हॉल है। कुछ सामान बेतरतीब रखा हुआ है। सूरज की किरणें छत से स्टूडियो के बीचों बीच पड़ रही हैं। हमारा नायक निर्देशक की कुर्सी पर बैठा है। सन्नाटा है और धीरे से स्टूडियो का दरवाज़ा खुलता है। दरवाज़े से नायिका कमर पर मटका रखे दाखिल होती है। सितार की ध्वनियाँ उसका स्वागत करती हैं। छम-छम चलती हुई धीमे क़दमों से वो आगे बढती है और मुड़कर देखता नायक बस इस खूबसूरती को देखता रह जाता है।
नायिका सूरज की किरणों के बीच आकर खड़ी हो जाती है। बांसुरी का वही पीस जो पहली बार नायिका के लिए बस रह-रह कर बजा था, इस बार खुलकर बजता है। बांसुरी की धुन दर्शक को अपने आगोश में ले लेती है। आप नायिका को पहली बार पारो के लिबास में देखते हैं। आप सोचते हैं कि पारो तो इसे ही होना चाहिए। इतनी सादगी कैसे संभव है? नायक भी बस उसे देखता रह जाता है।
श्वेत-श्याम फिल्मों की खूबसूरती का मैं बखान नहीं कर सकता और इस फिल्म में तो कैमरा उस जादूगर के हाथ में है जिसे हम वी के मूर्ति के नाम से जानते हैं। वी के मूर्ति इकलौते विशुद्ध छायाकार हैं जिन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया है। छोटी बात नहीं है ये। स्टूडियो में सूरज की किरण आ सके इसलिए इन्होने स्टूडियो की छत तुड़वा दी थी।
नायक नायिका की बातचीत आगे बढती है। नायिका अब अपने पुराने अंदाज में वापस आ गयी है, जहाँ वो भोली भी है, नाजुक भी और थोड़ी बहुत शरारती भी। दुनिया जहान की उसे कोई जानकारी नहीं। वो अपनी नब्बे रुपये की नौकरी का हवाला देती है। नायक कहता है कि तुम्हे पारो बनने के लिए हज़ार रुपये महिना मिलेगा। नायिका चकरा जाती है और फिर हिसाब लगाकर कहती है कि एक अकेली लड़की भला इतने रुपयों का क्या करेगी, आप तो मुझे माफ़ कीजिये। नायिका की मासूमियत नायक का यकीन पुख्ता किये जाती है कि यही पारो है।
दृश्य के आखिरी शॉट में नायक कुर्सी पर बैठा है और नायिका उसके आगे ज़मीन पर, ठीक वैसे जैसे कोई गुरु-शिष्या बैठे हों। वी के मूर्ति फिर अपना परिचय देते हैं। आपके पीछे बहुत रौशनी हो तो सामने से तस्वीर लेने से आपकी बस छाया दिखाई देगी।
अब तक दिख रहे नायक नायिका के पीछे सूर्य की किरणें फिर से जगमगा उठती हैं। वो दोनों दो शरीर से दो छायाओं में बदल जाते हैं।
दृश्य अपने उफान पर ख़त्म होता है। आपका मन बार-बार गुरुदत्त की कला के आगे सर झुकाता है।
कहानी बहुत आगे बढ़ चुकी है जब हमारा नायक बर्बाद हो चुका है। उसे दुनिया की नश्वरता का एहसास हो चुका है। वो पीछे भागती नायिका से अपना दामन छुड़ाकर भाग जाना चाहता है। वो अब अपने आपको सबकी नज़रों से छिपा लेना चाहता है। तब फिल्म अपने उच्चतम शिखर तक पहुँचती है।
जैसे गुरुदत्त की ‘प्यासा’ में वो बोल हैं,
जला दो इसे फूक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...
ठीक वैसा ही उफान रफ़ी की आवाज़ में यहाँ भी है। मौहम्मद रफ़ी जैसा ऊँचा कोई गाये तो नामालूम उसके गले का क्या हाल हो, लेकिन रफ़ी के यहाँ तो रेंज इतनी गजब की है कि निचले सुर में गाते हैं तो सागर की गहराईयों से बातें करते हैं और ऊँचे जाते हैं तो इंद्र के सिंहासन को छूते हैं। इन्हीं ‘ईश्वर की आवाज़’ रफ़ी के सधे हुए और सातवें आसमान को छूते सुरों में जब ये गाना बजता है,
उड़ जा उड़ जा प्यासे भँवरे
रस ना मिलेगे ख़ारों में, (ख़ार : कांटे)
कागज़ के फूल जहाँ खिलते हैं
बैठ ना उन गुलज़ारों में,
नादान तमन्ना रेती में
उम्मीद की कश्ती खेती है,
इक हाथ से देती है दुनिया
सौ हाथों से ले लेती है,
ये खेल है कबसे जारी
बिछड़े सभी बारी बारी...
आप इस दृश्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। कैसे ना हों, इस दृश्य के पीछे दादा बर्मन, रफ़ी, कैफ़ी, गुरुदत्त, वहीदा रहमान और कैमरामैन वी के मूर्ति जैसे जादूगर खड़े हैं। कैसे हो सकता है कि ये दृश्य आपके दिल को ना चीर दे। कैसे हो सकता है कि ये फिल्म आपको अपने प्रभाव में ना ले ले।
एक इंटरव्यू में एक दूसरे दिग्गज कलाकार कमल हासन जब ‘कागज़ के फूल’ की बात करते हैं तो उनका चेहरा और भाव देखिये, साठ-पैंसठ साल पहले बनी फिल्म आज भी उन्हें किस तरह आह्लादित कर रही है।
‘कागज़ के फूल’ एक फ्लॉप फिल्म है, ‘कागज़ के फूल’ एक कालजयी फिल्म है।
‘कागज़ के फूल’ को तब दर्शक नहीं मिले थे, ‘कागज़ के फूल’ अब तक देखी जा रही है।
‘कागज़ के फूल’ ने गुरुदत्त को मायूस कर दिया था, ‘कागज़ के फूल’ गुरुदत्त को अमर कर गयी।
फिल्मों की कमाई देखकर उनकी गुणवत्ता तय करने वालों को कुछ तो सोचना चाहिए
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